राष्ट्रपति चुनाव: 2024 की ‘पहली लड़ाई’ हार गया विपक्ष!

274

नई दिल्ली: द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाकर बीजेपी ने पहली बाजी जीत ली। दरअसल राजनीति में संदेशों और संकेतों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाकर बीजेपी ने देश के करोड़ों आदिवासी और वनवासी समुदाय के लोगों को संदेश दिया है कि बीजेपी के लिए वो बेहद महत्वपूर्ण हैं। अगर द्रौपदी मुर्मू राष्ट्रपति का चुनाव जीत जाती हैं तो वो आदिवासी समुदाय से आने वाली देश की पहली राष्ट्रपति होंगी।

एक ओर सत्ता पक्ष द्रौपदी मुर्मू के जरिए बड़ा संदेश दे रहा है तो दूसरी ओर विपक्ष संकेतों की राजनीति में पूरी तरह से फेल है। विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार यशंवत सिन्हा पूर्व आईएएस अधिकारी और केंद्रीय मंत्री रहे हैं। अपने राजनीतिक जीवन का ज्यादातर समय उन्होंने बीजेपी में ही बिताया है। मौजूदा राजनीतिक समीकरण में यशंवत सिन्हा की जीत तो मुश्किल है ही साथ ही साथ वो कोई राजनीतिक संदेश देने वाले उम्मीदवार भी नहीं हैं।

बीजेपी ने द्रौपदी मुर्मू को ही क्यों चुनाव ?

भारत में राष्ट्रपति का पद प्रशासनिक से ज्यादा सांकेतिक होता है। प्रशासन का सारा काम प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली कैबिनेट करती है। ऐसे में द्रौपदी मुर्मू को चुन कर बीजेपी ने तीन बड़े काम किए।

  1. पहला काम- देश को पहली आदिवासी राष्ट्रपति देने की कोशिश
  2. दूसरा काम- महिला नेता को देश के सर्वोच्च पद पर पहुंचाने की कोशिश
  3. तीसरा काम- संघ की पृष्ठभूमि वाली महिला को उम्मीदवार बनाकर कैडर को संदेश

द्रौपदी मुर्मू के नाम पर बिखरेंगे विपक्ष के वोट ?

राष्ट्रपति चुनाव की तस्वीर अब पूरी तरह से साफ हो चुकी है। सत्ता पक्ष से द्रौपदी मुर्मू ओर विपक्ष से यशवंत सिन्हा उम्मीदवार हैं। अब सवाल ये है कि क्या इन दोनों उम्मीदवारों में दूसरे पक्ष के वोटों को तोड़ने की ताकत है। ये सवाल इसलिए क्योंकि ओडिशा से आने वाली द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाए जाने के कुछ ही देर बाद नवीन पटनायक ने उन्हें अपना समर्थन दे दिया। ओडिशा से जनजाति समुदाय की महिला को इस पद के लिए चुनने पर उन्होंने पीएम मोदी को धन्यवाद भी कहा। मतलब साफ है द्रौपदी मुर्मू ने अपने लिए बाहर से समर्थन हासिल करना शुरू कर दिया। यशवंत सिन्हा मूल रूप से बिहार के रहने वाले हैं। इसलिए लोगों के मन में ये सवाल है कि क्या जिस तरह से नवीन पटनायक ने द्रौपदी मुर्मू को समर्थन दिया, उसी तरह से यशवंत सिन्हा अपने लिए नीतीश कुमार का समर्थन हासिल कर पाएंगे। इसके अलावा सवाल ये भी है कि क्या द्रौपदी मुर्मू के उम्मीदवार बनने से आदिवासियों की राजनीति करने का दावा करने वाली झारखंड मुक्ति मोर्चा भी उनके समर्थन में आएगी, या फिर हेमंत सोरेन का समर्थन हजारीबाग से चुन कर आते रहे यशवंत सिन्हा को मिलेगा?

द्रौपदी मुर्मू से बीजेपी को राजनीतिक फायदा ?

द्रौपदी मुर्मू ने भले ही राजनीतिक तौर पर बीजेपी के लिए कभी कोई बड़ी लड़ाई ना जीती हो, लेकिन बीजेपी उनके जरिए जनजाति समुदाय को बड़ा राजनीतिक संदेश देना चाहती है। जिसका फायदा आने वाले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में देखने के लिए मिल सकता है। झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और गुजरात के कुछ इलाकों में जनजाति समुदाय की बड़ी संख्या है। लोकसभा में 47 सीटें जनजाति समुदाय के लिए आरक्षित हैं, इसके अलावा 50 से ज्यादा ऐसी सीटें हैं जहां जनजाति समुदाय गेम चेंजर है। अगर बीजेपी को इस दांव का फायदा मिला तो वो लोकसभा की करीब 100 सीटों पर बढ़त बना सकती है।

यशवंत सिन्हा और द्रौपदी मुर्मू में समानताएं

द्रौपदी मुर्मू और यशवंत सिन्हा दोनों ने अब तक बीजेपी की विचारधारा को आगे बढ़ाया है। द्रौपदी मुर्मू ओडिशा में बीजेपी-बीजेडी सरकार में कैबिनेट मंत्री रही हैं तो यशवंत सिन्हा केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे हैं। दोनों नेता अब तक कांग्रेस विरोध की राजनीति करते रहे हैं। दोनों नेताओं ने अपने पिछले चुनाव बीजेपी के टिकट पर जीते थे। यशवंत सिन्हा झारखंड के हजारीबाग से लोकसभा जीतते रहे हैं तो द्रौपदी मु्र्मू झारखंड की राज्यपाल रह चुकी हैं।

विपक्ष के पास अपना कोई उम्मीदवार नहीं था ?

पहले शरद पवार, फिर फारूख अब्दुल्लाह और अंत में गोपाल कृष्ण गांधी के मना करने के बाद विपक्ष ने यशवंत सिन्हा को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया। वो यशवंत सिन्हा जो अस्सी के दशक से बीजेपी की सक्रिय राजनीति में रहे, जो अटल सरकार में वित्त और विदेश मंत्री रहे। 2014-15 तक नरेंद्र मोदी के बड़े प्रशंसक रहे। ऐसे में क्या यशवंत सिन्हा विपक्ष के नेचुरल च्वाइस हो सकते हैं, राजनीति की थोड़ी भी समझ रखने वाले किसी भी व्यक्ति से ये सवाल किया जाएगा तो जवाब ना में होगा। फिर भी विपक्ष ने यशवंत सिन्हा को ही उम्मीदवार क्यों चुना ? क्या विपक्ष के पास उसकी विचारधारा वाला कोई नेता नहीं था जो सत्ता पक्ष के सामने खड़ा हो पाए। क्या राष्ट्रपति चुनाव के जरिए विपक्ष 2024 की लड़ाई का संकेत नहीं दे सकता था। क्या विपक्षी नेताओं के पास इतना भी साहस नहीं था कि वो मोदी सरकार के सामने खुद को प्रस्तुत कर पाए। ऐसे में ये क्यों ना माना जाए कि विपक्ष 2024 की पहली लड़ाई हार चुका है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here