नई दिल्ली/पटना/लखनऊ | एशियन टाइम्स स्पेशल रिपोर्ट | रिपोर्टर: तनवीर आलम शेख
दिल्ली के प्रतिष्ठित डीपीएस द्वारका स्कूल में फीस वृद्धि के विरोध में उपजे विवाद ने एक बार फिर देशभर में प्राइवेट स्कूलों की मनमानी को उजागर कर दिया है। हैरानी की बात यह है कि फीस बढ़ोतरी का विरोध कर रहे छात्रों और अभिभावकों को स्कूल प्रशासन ने बाउंसरों और बॉडीगार्ड्स के जरिए स्कूल में प्रवेश से रोक दिया।
यह मामला अब दिल्ली हाईकोर्ट तक पहुंच गया है, लेकिन इससे बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या अब स्कूल शिक्षा का मंदिर नहीं, प्राइवेट कंपनियों जैसा व्यवहार करने वाला व्यवसाय बन गया है?
बिहार और यूपी में भी यही हालात
बात सिर्फ दिल्ली तक सीमित नहीं है। बिहार, उत्तर प्रदेश और देश के अन्य राज्यों में भी निजी स्कूलों द्वारा मनमाने ढंग से फीस बढ़ाना, बिना सहमति के डोनेशन लेना, यूनिफॉर्म व किताबों पर कमीशन कमाना, और विरोध करने वाले अभिभावकों को धमकाना आम बात हो गई है।
कई जगहों पर स्कूलों में बाउंसरों की तैनाती कर दी गई है ताकि अभिभावक प्रबंधन से सवाल न पूछ सकें। क्या यह वही शिक्षा व्यवस्था है जहां बच्चों को चरित्र, नैतिकता और लोकतंत्र का पाठ पढ़ाया जाता है?
सीट कम, लेकिन डोनेशन से करोड़ों की कमाई
एक और बड़ा मुद्दा है कि अधिकतर प्राइवेट स्कूलों में सीटें सीमित होती हैं, लेकिन इसके बावजूद लाखों रुपये डोनेशन के नाम पर फॉर्म भरवाकर अभिभावकों से वसूली की जाती है। प्रवेश न मिलने की स्थिति में भी पैसे लौटाए नहीं जाते। यह एक सुनियोजित वसूली तंत्र बन चुका है जो शिक्षा के नाम पर चल रहा है।
अभिभावकों में आक्रोश, सरकार चुप
अभिभावकों का कहना है कि वे अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने भेजते हैं, लेकिन स्कूलों का माहौल अब डर और दमन में बदलता जा रहा है। कई स्कूलों में बच्चों को फीस न देने पर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है। सरकारें मौन हैं, शिक्षा विभाग आंख मूंदे बैठा है।
मांग: शिक्षा को व्यवसाय नहीं, सेवा घोषित किया जाए
देशभर के हजारों अभिभावकों की मांग है कि सरकार शिक्षा को व्यवसाय घोषित करने के बजाय इसे जनसेवा का हिस्सा बनाए। निजी स्कूलों की फीस और व्यवहार पर सख्त नियंत्रण हो और सभी राज्यों में पारदर्शी शिक्षा नीति लागू की जाए।

Author: Bihar Desk
मुख्य संपादक (Editor in Chief)